महानगर...
सरपट भागती ,
न जाने क्या तलाशती ,
एक दुसरे को धकियाती ,
नोचती , खसोटती,
लुटती,पिटती,
शोर मचाती
पान चबाती,
खांसती, खंखारती,
इधर उधर थूकती,
दीवारों को गन्दा करती,
धुंआ उड़ाती ,
गंद फैलाती,
कभी धर्म के नाम पर ,
कभी पाखंडों को थाम कर,
मरती मारती,
कभी धर्म के नाम पर ,
कभी पाखंडों को थाम कर,
मरती मारती,
सिर्फ खुद के लिए सोचती,
चौतरफा है एक भीड़,
कौन हैं ये लोग ?
कहाँ से आ रहे हैं ?
कहाँ को जायेंगे ?
कब तक दौड़ते रहेंगे ?
क्या ऐसे बचेगा हमारा अस्तित्व..?
क्या ऐसे बचेगा हमारा अस्तित्व..?
बहुत सारे सवाल मेरे,
जहन को झिंझोड़ने लगते हैं ,
घबरा कर मैं आँखे बंद कर लेती हूँ,
फिर ख्याल झटक देती हूँ,
जहन को झिंझोड़ने लगते हैं ,
घबरा कर मैं आँखे बंद कर लेती हूँ,
फिर ख्याल झटक देती हूँ,
और चल पड़ती हूँ ,
आगे निकलने की होड़ में
उसी भीड़ का एक हिस्सा बनने .....
................................................ममता
................................................ममता
सुंदर शब्दों से चित्रित आज का माहोल ... बधाई ... (Y) ऐसे ही लिखती रहिये ..
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर रचना की प्रस्तुति।
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