पहाड़ी औरत .............
उम्मीदों का थामे हाथ ,
सुबह घर से निकलती हूँ ....
लकड़ी चुनती, चारा ,पानी ढोती ,
दिन भर दुर्गम चट्टानों से लडती हूँ ....
सुबह घर से निकलती हूँ ....
लकड़ी चुनती, चारा ,पानी ढोती ,
दिन भर दुर्गम चट्टानों से लडती हूँ ....
बुवाई करती ,कटाई करती ,
अपने श्रमगीतों से बियावान पहाड़ों को जगातीं हूँ ....
गुनगुनाती हुयी कोई पहाड़ी गीत ,
डूबते सूरज के साथ थकी सी लौट आती हूँ ....
रात फिर कराती है ,
मुझे मेरे होने का अहसास....
फिर भर जाती हूँ ऊर्जा से,
एक नए दिन का सामना करने के लिए ....
फिर हो जाती हूँ तैयार,
अपने अलावा सभी के लिए जीने को....
सदियों से चलता आ रहा है,
मेरा ये नियमित और बेरहम जीवनचक्र ....
उम्मीद में एक खुशनुमा सवेरे की,
हंसते-हंसते सारे दुख सह लेती हूँ ....और एक दिन 'मेरा वक़्त भी बदलेगा'
सुख की ये आस लिए बेवक्त चली जाती हूँ ..
............................................................... ममता
............................................................... ममता
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (05.02.2016) को "हम एक हैं, एक रहेंगे" (चर्चा अंक-2243)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत आभार राजेंद्र जी....अवश्य आउंगी..
DeleteThis comment has been removed by the author.
Deleteमेरा प्रथम साक्षात्कार आपके ब्लॉग से.. पहाड़ी जीवन का एक सटीक और सार्थक वर्णन है.. पहाड़ी महिलाओं के जीवन का ..जिसे मैने बचपन में यथार्थ में स्वयं देखा व अनुभव किया है /.. साधुवाद इतनी सुंदर अभिव्यक्ति के लिए..
Deleteबहुत बहुत आभार प्रमोद गुप्ता जी ..
Deleteहीन्दूस्थान का इतना यथार्थ पूर्ण वर्णन व व्यक्ति के साथ परीस्थिती की प्रस्तुति मार्मिक के साथ सराहनीय है।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
DeleteBahoot khub..! Saral aur mridu shaili aapki hume pasand aayi
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
DeleteKhoobsurat! Prerna aur umeed se bharri ! Dhanyawad :)
ReplyDeleteबहुत आभार आपका
DeleteKya khoob kahe ho..maza sa aa gaya..
ReplyDeleteBattulal
बहुत बहुत धन्यवाद
DeleteVery good write-up. I certainly love this website. Thanks!
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