मन की उड़ान......
सोचती हूँ पर्वत बन जाऊं ,
अविचलित,अखंड , आकर्षक ,
धवल सफेद,
आसमान को छूते पर्वत ,
तूफानों का रुख मोड़ दूं ,
और
आसमान से सितारे चुराकर,
प्यासी धरती में,
धीरे धीरे प्यार से बिखरा दूं .....
सोचती हूँ,पंछी बन जाऊं ,
और
आसमान से सितारे चुराकर,
प्यासी धरती में,
धीरे धीरे प्यार से बिखरा दूं .....
सोचती हूँ,पंछी बन जाऊं ,
अनासक्त, तटस्थ,
बंधन से मुक्त ,
उम्मीदों से दूर,कोई पहचान नहीं,
किसी की यादों में भी नहीं,
पेड़ों की डालियों में झूलती,
पेड़ों की डालियों में झूलती,
खुले आसमान के नीचे,
सितारों से बातें करती,
शाम की गुनगुनी हवाओं में गोते लगाऊं,सितारों से बातें करती,
इधर से उधर,बस उन्मुक्त उड़ती रहूँ ....
सोचती हूँ नदी बन जाऊं...
अपने विस्तार को पाने के लिए,
पत्थरों चट्टानों से टकराती ,
खुद अपनी राह बनाती ,
कभी शांत कभी तेज़ ,
इठलाती इतराती ,
संगीतमयी कलकल करती,
अनवरत बहती जाऊं,
सुनहरी घाटियों में दौड़ लगाऊँ ,
और अनंत सागर में एकाकार हो जाऊं ....
...........................................................mamta
बहुत बहुत धन्यवाद राजेंद्र जी
ReplyDeleteMamta ji bahoot hi saarthak prayaas aur bahoot hi manoram kavita..Aapka saadhuwaad hai..
ReplyDeleteBahut bahut aabhar Deepak ji kavita padhne ke liye
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