तृष्णा...

मानव मन की चाह,
 सीमित हो पायेगी कभी ?
शायद कभी नहीं!!
आकर्षित हो मन ,
भागता है किसी की ओर  ,
थिरकती है तृष्णा ,
जब तक पा न ले उसे ,
अधिकार में न ले ले अपने,
मिल जाये जिस छण,
फिर अतृप्त ,
फिर भटकने लगता है ,
खोजने  कुछ नया ,
जो तृप्त कर सके मन को,
सोचो आज मानव कितना सुखी होता,
तृष्णा भरे जीवन को तृप्ति से अगर जीता |
                                                    ...  mamta

                                                                                                                                                           


Comments

  1. सुंदर भाव के साथ सटीक शब्द ..
    लेकिन तृप्ति एक तरेह की मृगतृष्णा है जो कभी समाप्त नहीं होती ..
    अगर मनुष्य तृप्ति से संतुष्ट हो जाता तो शायद इतना विकास संभव नहीं हो पाता ...

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    1. धन्यवाद विनय जी लेकिन यही तृष्णा दुखों का कारण भी तो है.....

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  2. फिर भटकने लगता है ,
    खोजने कुछ नया ....

    पता नहीं यह नया कुछ करने, नया कुछ खोजने की चाह मनुष्य को उन्नति की और ले जाती है या उसे भटकाती है… ?
    कहना मुश्किल है !

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    1. धन्यवाद पुष्पेन्द्र जी... :)

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  3. Replies
    1. धन्यवाद कालीपद जी रचना पसंद करने के लिए..

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  4. दिल है की मानता नहीं......... बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति

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