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एक ख्याल.....बेवजह

मैं उदास थी ,कुछ परेशान  थी | आज कोई अच्छी खबर नहीं थी , खुश होने की कोई वजह नहीं थी | अनमनी सी मैंने खिड़की से झाँका, इधर उधर हर तरफ ताका | पेड़ मस्ती में झूम रहे थे, पंछी चहचहाते उड़ रहे थे, इधर बगिया में फूल  इतरा रहे थे  , उधर गिलहरियां मुंडेर में फुदक  रही थी, कहीं भी तो  कोई मायूसी नहीं थी। विस्मित थी कौतुहल वश मैंने पूछा उनसे, बेटा हुआ होगा या लॉटरी लगी होगी , चुनाव जीते हो या नौकरी लगी होगी,  सुनो यूं ही कोई खुश होता नहीं , जरूर कोई तो अच्छी खबर  होगी | घूरकर देखा मुझे, फिर ठठाकर हंस पड़े , मेरी बातें सुन सब एक स्वर में बोल पड़े , कितना बांवरा है ये इंसान , हर हाल में क्यूँ ना रहता है सहज , खुश रहने के लिए भी चाहिए होती है क्या कोई वजह ? वो तो बस एक सपना था,  जो आँख खुली और टूट गया, लेकिन एक यथार्थ से अवगत मुझे करा गया , जब पूरी कायनात  खुश होती है बेवजह, तो हम ही क्यों ढूंढते हैं खुश रहने की कोई वजह ??? ?                                                                             ममता

अभिनंदन नव वर्ष ....

अपनी बंद रहस्यमयी पंखुड़ियों को खोल,  एक बार फिर खिलने को है नववर्ष का फ़ूल ।     एक बार फिर उगेंगे कल्पनाओं के पंख,      एक बार फिर सजेंगे नव संकल्पों के दीप।  पतझड़ के पीले पत्तों से झड़ जायेंगे सारे दुःख , नयी कोपलों सी फिर जन्म लेगी आशाएं ।     सतरंगी पंखुड़ियों में खो जायेगें गम के आंसू,   ओस की बूदों सी चमकेंगी मुसकानें नयी उमंगो की।  चलो भर कर मन में फिर एक विश्वास नया, करें अभिनन्दन नव वर्ष के चढते सूरज का । स्नेह और आत्मियता बरसेगी पुरानी रंजिशों को भूल,                         एक बार फिर खिलने को है नववर्ष का फूल।                            ममता            ------------ * --- *------------

मुझे भूलना नहीं ....

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टेढ़ी मेढ़ी  कच्ची पगडंडियां से नीचे उतरते ही ,   आँखों से ओझल होते जाते हैं खेत,खलिहान , और डामर वाली पक्की चौड़ी सड़क , ले जाती है गाँव से दूर मुझे शहरों की ओर, बेहतर जीवन की लालसा में  पर जिंदगी की जद्दोजहद के बीच  , अक्सर पुकारता है  गाँव मेरा , 'मुझे भूलना नहीं ' याद दिलाता हुआ सा ..... गाँव के सिराहने सिराहने जंगल की हरीतिमा , बाखलियों  से नीचे  नदी तक  ढलानों में  खेत  , आढू खुमानी से लदे हुए पेड़ , छतों मैं फैली कद्दू ककड़ियों की बेल , चीड़ देवदार और बांज के  जंगल  , अक्सर याद आते हैं मुझे, तिमील, बुरांस और काफल ...... घाघरे और चोली में रंग बिरंगी गोट , कमर में बंधा हुआ धोती का फेंटा, माथे में पिठियाँ अक्षत, गले मैं  गुलुबन्द ,     बांज और गाज्यो  काटती , गीतों की धुन से जंगल गुंजाती , अक्सर याद आती हैं मुझे  आमा ,काकी, जड़जा और बोजी ...... भट का जौला ,लहसुन हरी धनिया का नमक, घौत की दाल और भांग की चटनी , गडेरी की सब्जी,लायी का टपकिया, आलू के गुटके , ककड़ी का रायता, सना हुआ नींबू ,  ऊखल कुटे चावलों का भात , अक

पहाड़ी औरत .............

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उम्मीदों का थामे हाथ , सुबह घर से निकलती हूँ .... लकड़ी चुनती,  चारा ,पानी ढोती , दिन भर दुर्गम चट्टानों से  लडती हूँ .... बुवाई करती ,कटाई करती , अपने श्रमगीतों से बियावान पहाड़ों को जगातीं हूँ .... गुनगुनाती हुयी कोई पहाड़ी गीत , डूबते सूरज के साथ  थकी सी  लौट आती हूँ .... इसी तरह पता नहीं कब होती है सुबह ,                                                                           कब ढल जाती है शाम.... रात फिर कराती है , मुझे मेरे होने का अहसास.... फिर भर जाती  हूँ ऊर्जा से, एक नए दिन का सामना करने के लिए .... फिर हो जाती हूँ  तैयार, अपने अलावा सभी के लिए जीने को.... सदियों से चलता आ रहा है, मेरा ये  नियमित और बेरहम जीवनचक्र .... उम्मीद में एक खुशनुमा सवेरे की, हं सते-हंसते  सारे दुख सह  लेती हूँ .... और एक दिन 'मेरा वक़्त भी बदलेगा'  सुख की ये आस लिए बेवक्त चली जाती हूँ ..      ...............................................................     ममता

महानगर...

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सरपट भागती , न जाने क्या तलाशती , एक दुसरे को धकियाती , नोचती , खसोटती, लुटती,पिटती, शोर मचाती  पान चबाती, खांसती, खंखारती, इधर उधर थूकती, दीवारों को गन्दा करती, धुंआ उड़ाती , गंद फैलाती, कभी धर्म के नाम पर , कभी पाखंडों को थाम कर, मरती मारती, सिर्फ खुद के लिए सोचती, चौतरफा है एक भीड़, कौन हैं ये लोग ? कहाँ से आ रहे हैं ? कहाँ को जायेंगे ? कब तक दौड़ते रहेंगे ? क्या ऐसे बचेगा हमारा अस्तित्व..? बहुत सारे  सवाल मेरे, जहन को झिंझोड़ने लगते हैं , घबरा कर मैं आँखे बंद कर लेती हूँ, फिर ख्याल झटक देती हूँ, और चल पड़ती हूँ , आगे  निकलने की होड़ में उसी भीड़ का एक हिस्सा बनने ..... ................................................ममता

मन की उड़ान......

सोचती हूँ पर्वत बन जाऊं , अविचलित,अखंड , आकर्षक , धवल सफेद,  आसमान को छूते पर्वत , तूफानों का  रुख मोड़ दूं , और आसमान से सितारे  चुराकर, प्यासी धरती में, धीरे धीरे प्यार से बिखरा दूं .....                                      सोचती हूँ, पंछी बन जाऊं   , अनासक्त, तटस्थ, बंधन से मुक्त , उम्मीदों से दूर, कोई पहचान नहीं, किसी की यादों में भी नहीं,  पेड़ों की डालियों में झूलती, खुले आसमान के नीचे,  सितारों से बातें करती, शाम की गुनगुनी हवाओं में गोते लगाऊं, इधर से उधर, बस उन्मुक्त उड़ती रहूँ ....   सोचती हूँ नदी बन जाऊं...   अपने विस्तार को पाने के लिए, पत्थरों चट्टानों से टकराती , खुद अपनी राह बनाती , कभी शांत कभी तेज़ , इठलाती इतराती ,   संगीतमयी कलकल करती, अनवरत बहती जाऊं,   सुनहरी घाटियों में दौड़ लगाऊँ ,    और अनंत सागर में एकाकार हो जाऊं ....   ...........................................................mamta

कौन अपना ~~~~कौन पराया~~~~

मापदंड क्या है ? कि  कौन अपने कौन पराये  होते  हैं , आँखों से जो  दिखते हैं ,क्या  बस वही रिश्ते सच्चे होते हैं .. कुछ अपने होकर एहसासहीन, अपनों के  दर्द से आँख मूँद लेते हैं , कहीं  कुछ  बेगाने भी  अपना बन हाथ  थाम  लेते है .. कुछ लोग खून के रिश्ते भी भुला देते हैं, कुछ लोग बिन रिश्ते भी रिश्ता निभा लेते  हैं .. कहीं कुछ अपने बेरहमी से दिल तोड़ देते हैं , कहीं कुछ अनजाने लोग अनूठा बंधन जोड़ लेते  हैं .. कभी अपनों की भीड़ में भी सब बेगाना सा लगता है , कभी अंजानो के बीच  में कोई अपना सा लगता  है .. कहीं खून के रिश्तों में भी , जज्बात नहीं होते , कहीं अनजान के जज्बों में भी लगता है ,खून दौड रहा है ..                                                                                   .................................................................................. mamta