तृष्णा...
मानव मन की चाह, सीमित हो पायेगी कभी ? शायद कभी नहीं!! आकर्षित हो मन , भागता है किसी की ओर , थिरकती है तृष्णा , जब तक पा न ले उसे , अधिकार में न ले ले अपने, मिल जाये जिस छण, फिर अतृप्त , फिर भटकने लगता है , खोजने कुछ नया , जो तृप्त कर सके मन को, सोचो आज मानव कितना सुखी होता, तृष्णा भरे जीवन को तृप्ति से अगर जीता | ... mamta ...